बेनेदेत्तो क्रोचे का अभिव्यंजनावाद

अभिव्यंजनावाद के प्रवर्तक बेनेदेत्तो क्रोचे मूलतः आत्मवादी दार्शनिक हैं। उनका उद्देश्य साहित्य में आत्मा की अन्तः सत्ता स्थापित करना था। इनसे पूर्व काण्ट ने मन तथा बाह्य जगत् के तादात्म्य और समन्वय का प्रतिपादन करते हुए दृश्य जगत् की उपेक्षा की और हीगेल ने काण्ट की मान्यता स्वीकार करते हुए दृश्य जगत् को भी महत्त्व प्रदान किया। इसके विपरीत क्रोचे ने केवल मानसिक प्रक्रिया को ही महत्त्व दिया है। उनकी दृष्टि में बाह्य उपकरण गौण साधन मात्र हैं। क्रोचे का अभिव्यंजनावाद कला के मूल तत्त्व की खोज का प्रयास है। कला का वास्तविक तत्त्व क्या है अथवा उसकी आत्मा क्या है? इस विषय में क्रोचे ने अपना गम्भीर विवेचन प्रस्तुत किया है, जो सूक्ष्म भी है। क्रोचे के समस्त सौन्दर्य-विवेचन में आत्म-तत्त्व प्रतिष्ठित है। यह आत्म-तत्त्व कलाकार की चेतना है। इस आत्म-तत्त्व को क्रोचे ने आन्तरिक अभिव्यक्ति कहा है, जो इस जगत् में मुख्य रूप से दो प्रकार की प्रतिक्रिया करता है।
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